Sunday 30 December 2012


जोड़ो के पुन: प्रत्यारोपण से कैसे बचें !

 
    
डॉक्टर तलवार ने लगभग 16 वर्ष पहले अपने दोनों घुटनों का प्रत्यारोपण करवाया था । पिछले कुछ महीनो से चलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी और दर्द रहता था । एक्सरे आदि जांचों के बाद पाया गया की उनके कृतिम घुटने का पोली इन्सर्ट लाइनर घिस गया था और इस कारण चलते समय कृत्रिम जोड़ में असामान्य चाल होने से लिगामेंट्स पर जोर पड़ रहा  था और कभी कभी इस कारण जोड़ की झिल्ली भी दब जाने के कारण सूज भी जाती थी और दर्द होने लगता था। हालां की वे पुनः प्रत्यारोपण के लिए आई थीं परन्तु बहुत छोटे से आपरेशन से सिर्फ उनके कृतिम घुटने के पोली लाइनर को बदल दिया गया और वे अगले दिन से ही पुनः पहले की तरह बिना दर्द के चलने फिरने लगीं ।
डॉक्टर तलवार की बी एम् डी जांच में ऑस्टियोपोरोसिस यानि हड्डियों में कैल्सियम और प्रोटीन की बहुत कमी पाई गयी, इसके लिए उन्हें भी उपयुक्त इलाज दिया गया जिससे की भविष्य में उनके घुटने की हड्डियों  पर प्रत्यारोपित इम्प्लांट कभी ढीले न होने पायें।
          विगत दस वर्ष पहले तक उपलभ्ध कुल्हे और घुटने के प्रत्यारोपण में प्रयुक्त होने वाले इम्प्लांट, आज उपलभ्ध कृत्रिम जोड़ो की तुलना में कम विकसित थे और उनकी औसत आयु लगभग 15 से 20 वर्ष होती थी जबकि आज के कृत्रिम इम्प्लान्ट्स में  आग्ज़िनियम, सेरेमिक और तृतीय जेनेरेशन क्रॉस पोली प्रयुक्त होने के कारण कृत्रिम घुटने और कुल्हे की औसत आयु 30 से 40 वर्ष तक हो गयी है। अतः यह श्पष्ट है की यदि आज जोड़ प्रत्यारोपण ओपेरशन के बाद हड्डियों में काल्सियम  आदि की कमी न होने दी जाये और अन्य हिदायतों का ध्यान रखा जाये तो ये ओपेरशन हमें लगभग 40 वर्षों तक सामान्य जीवन जीने में हमारा साथ देंगे। 
प्रत्यारोपित जोड़ो के खराब होने के मुख्य कारण कृत्रिम जोड़ो का ढीला होना, उखड जाना, सतह का घिस जाना, दुर्घटना में टूट जाना तथा संक्रमित होना होता है। कृत्रिम जोड़ के जो प्रत्यारोपित जोड़ो के खराब होने के मुख्य कारण कृत्रिम जोड़ो का ढीला होना, उखड जाना, सतह का घिस जाना, दुर्घटना में टूट जाना तथा संक्रमित होना होता है। कृत्रिम जोड़ के धातु के बने भाग जो सम्बंधित  हड्डी पर चिपक कर बैठे होते है यदि वो  हड्डी में ऑस्टियोपोरोसिस के कारण छीण हो जाती है तो लगातार बार बार चलते समय दबाव पड़ते रहने के कारण अति शूक्छ्म फ्रैक्चर होते रहते हैं और फलस्वरूप कृत्रिम इम्प्लांट कुछ समय बाद अपने स्थान पर ढीले हो जाते हैं , फलस्वरूप चलने में दर्द रहने लगता है । 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में प्रत्यारोपण फेल होने का प्रमुख कारण है अतः यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है की कुल्हे अथवा घुटने प्रत्यारोपण के बाद डॉक्टर द्वारा बताये अनुसार वर्ष में एक बार बी 0 एम् 0 डी 0 (डेक्सा ) जरूर कराते रहना चाहिए और हड्डी में क्षरण पाए जाने पर उसका समुचित इलाज लेना चाहिए ।
          प्रत्यारोपित इम्प्लांट ढीले होने एक और प्रमुख कारण कृत्रिम इम्प्लांट की सतह के घर्षण से जनित पोलिएथेलिन के शुक्छ्म कण जोड़ में इक्कठा होते रहते हैं जो इम्प्लांट के समीप की हड्डी को बायोकेमिकल रिएक्शन द्वारा छरित  करते हैं और धीरे धीरे इम्प्लांट  सतह के अतिरिक्त होस्ट बोन से भी ढीला होने लगता है। यह प्रक्रिया कुछ लोगों में  और कुछ में ज्यादा पायी जाती है।इस समस्या को देखते हुए इम्प्लांट की सतह में सिरेमिक अथवा हाई क्रॉस लोंक पाली की सतह का इस्तेमाल होने लगा है जिससे इस समस्या पर काफी हद तक पार पा  लिया गया है। अत: प्रत्यारोपण के लिए ऐसे ही जोड़ो का चयन करें।
          डिसलोकेशन अर्थात कृत्रिम जोड़ के दोनों मुख्य भागों का अपने स्थान से उखड के हट जाना, अधिकतर कुल्हे में पाया जाता है और आम तौर पर इसका कारण सम्बंधित जोड़ को चलाने वाली मांसपेसियों का छरन या कमज़ोर होना, न्यूरोपैथी या पार्किन्सोनिज्म  जैसी बिमारी का होना , इम्प्लांट का सही प्रत्यारोपण न होना अथवा मरीज़ को डॉक्टर द्वारा बताई गयी हिदायतों का पालन न करना होता है। कभी कभी न्यूरोपैथी या पार्किन्सोनिज्म के मरीजों को बेल्ट नुमा ब्रेस लगाने की आवश्यकता होती है। समस्या  ठीक न होने पर भिन्न प्रकार के (semi-Constrained) कृत्रिम इम्प्लांट द्वारा पुन: जोड़ प्रत्यारोपण किया जाता है। 
 घुटने और कुल्हे के प्रत्यारोपण पूर्णतया संक्रमण रहित वातावरण और विधि द्वारा किया जाता है परन्तु फिर भी संक्रमण की संभावना 0.5 % होती है । इसका कारण वातावरण से या ऑपरेशन के दौरान संक्रमण पहुंचना  अथवा मरीज़ के शरीर संक्रमण रोधी क्षमता,  शरीर में किसी अन्य स्थान जैसे दांतों आदि में संक्रमण का होना और जोड़ के समीप की बायोलॉजिकल अवस्था आदि जिम्मेदार होती है। ज्यादातर यदि ऑपरेशन  के दौरान संक्रमण पहुँचने के लक्क्षण ऑपरेशन के चौथे या पांचवे दिन ही सामने आ जाते है और 95 % मरीजों में इसका निदान ज्वोइंट लवाज आदि द्वारा हो जाता है। अन्य कारणों से बाद में संक्रमण होने पर अथवा उपरोक्त अवस्था में न ठीक होने पर प्रायः टू स्टेज में पुन: प्रत्यारोपण कर संक्रमण से निजाद संभव होती है।  बड़ी दुर्लभ परिश्थितियों यदि मरीज ठीक से इलाज नहीं ले पता है या समय रहते  नहीं हो पता है तो कृत्रिम  इम्प्लांट हटा कर ज्वोइंट  फ्यूज़न जैसे ऑपरेशन की आवश्यकता होती है।  अत: प्रत्यारोपण के बाद मरीज़ को अपने शरीर में किसी भी प्रकार के संक्रमण का तुरंत उपचार करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त पुन: प्रत्यारोपण  की आवश्यकता  मरीज के खुद के स्वास्थ्य, उम्र, लाइफ स्टाइल, वजन, पुरानी चोटें और डायबिटीज, ऑस्टियोपोरोसिस व् र्युमेतोइद आदि जैसी अन्य बीमारियाँ के कारण होती है । अतः लाइफ स्टाइल में उचित बदलाव, वजन नियंत्रित कर और बिमारियों का सही उपचार लेकर पुन: प्रत्यारोपण से बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि प्रत्यारोपण कम उम्र में आवश्यक हो तो मेडिकल टेक्नोलॉजी के आधुनिक लो फ्रिक्शन, सीमेंट रहित प्राकृतिक बनावट वाले इम्प्लांट का चयन करना चाहिए। यदि किन्ही कारणों से पुन: कुल्हा अथवा घुटना प्रत्यारोपण कराना आवश्यक हो तो उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्यों की आज की मेडिकल साइंस के परिवेश में यह पूर्णरूप से सुरक्षित अवं सफल है।
Dr. R.K. Singh

 
Dr. R.K. Singh
Joint Replacement & Spine Surgeon
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